AYURVEDIC MANAGEMENT OF ACUTE / ACTIVE STAGE OF DISEASES रोगों की साम-अवस्था की आयुर्वैदिक चिकित्सा:-

AYURVEDIC MANAGEMENT OF ACUTE / ACTIVE STAGE OF DISEASES
रोगों की साम-अवस्था की आयुर्वैदिक चिकित्सा:-


सफल आयुर्वैदिक चिकित्सा के लिए अन्य भावों के साथ-साथ इस भाव पर भी विचार करना व उसके अनुसार युक्तिपूर्वक औषधियों का उपयोग करना अनिवार्य होता है, कि रोग -

 
• साम अवस्था (Acute / Active stage) में है; अथवा
• निराम अवस्था (Chronic / Inactive stage) में।

प्रायः, निज रोग आरम्भिक / वर्धमान अवस्थाओं में साम अवस्था (Acute / Active stage) में होते हैं। यह साम-अवस्था आमतौर पर, निम्न रीति से उत्पन्न होती है -
• अधिकांश निज-रोग अग्निमांद्य-जन्य होते हैं (रोगाः सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ...);
• अग्निमांद्य से पोषक-तत्वों का सम्पूर्ण पाचन/शोषण/परिणति न होने से, सूक्ष्म-पोषक तत्व (Simple molecules) सम्यक् रीति से उत्पन्न/उपलब्ध नहीं होते, जिससे कि उनसे निर्मित होने वाले धातुओं का क्षय (Deficiency) होता है;
• उत्पन्न/उपलब्ध होने वाले सूक्ष्म-पोषक तत्व अपक्व (आम) अवस्था (Intermediary / abnormal stage) में होने से शरीर के धातुओं (Cells/ Tissues) व स्रोतसों में विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ पैदा करते हैं;
• इस कारण देह में अनेकों प्रकार के रोग पैदा होते हैं।

रोग की साम अवस्था (Acute / Active stage) में सामता का नाश करने के लिए, आयुर्वेद चिकित्सक को बार-बार ऐसी औषधियों / औषध-योगों की आवश्यकता पड़ती है, जो -

1. जठराग्नि का दीपन करें (Stimulation of digestive enzymes) व आहार पाचन में सहायक हों;
2. धात्वग्निओं का दीपन करें (Stimulation of metabolism) व धात्वग्नि-पाक (Metabolism) में सहायक हों;
3. स्रोतोशोधन करें (Improve transportation through the channels);
4. पचन-क्रिया से उत्पन्न मलों (Waste products) को कोष्ठ में लाने, व फिर उनका मल-मूत्र मार्गों से निष्क्रमण (Excretion) कराने में सहायक हों;
5. धात्वग्निमांद्य-जन्य आमविष का निराकरण करें (Immuno-modulation);
6. आमविष से पैदा होने वाली शोथ को दूर करें (Anti-inflammatory); व
7. ओजस् में वृद्धि करें (Antioxidant)।

सौभाग्यवश, आयुर्वेद के प्राचीन आचार्यों ने इसके लिए दो पृथक् समूह बना कर इस कठिन कार्य को सरल बना दिया है -

दीपन-पाचन करने वाली तीन प्रभावशाली औषधियों - शुण्ठी, पिप्पली, काली-मरिच - से बना योग, त्रिकटु चूर्ण;
स्रोतोशोधनअनुलोमन करके, मलों को शरीर से निष्कासित (संशोधन) करने वाली तीन प्रभावशाली औषधियों - हरीतकी, बिभीतक, आमलकी - से बना योग, त्रिफला चूर्ण।


अग्निवर्धन करके आमपाचन / आमनाशन करने वाली शुण्ठी, पिप्पली, काली-मरिच (त्रिकटु चूर्ण) तथा स्रोतोशोधन व अनुलोमन करके, मलों को शरीर से निष्कासित (संशोधन) करने वाली हरीतकी, बिभीतक, आमलकी (त्रिफला चूर्ण) को आवश्यकतानुसार अलग-अलग तथा एक साथ, दोनों प्रकार से दिया जा सकता है।

आम की उत्पत्ति अत्यधिक मात्रा / गति में होने पर:- पहले शुण्ठी, पिप्पली, काली-मरिच (त्रिकटु चूर्ण) से आमपाचन / आमनाशन करने बाद, फिर हरीतकी, बिभीतक, आमलकी (त्रिफला चूर्ण) का प्रयोग करते हुए, मलों को शरीर से निष्कासित (संशोधन) करना चाहिए।

किन्तु यदि आम की उत्पत्ति बहुत अधिक नहीं है तो, दोनों प्रकार की औषधियों - दीपन-पाचन व संशोधन - को एक ही साथ प्रयोग में लाया जा सकता है।

 प्रायः, संशमन करने वाले अधिकांश आयुर्वेद चिकित्सक दीपन-पाचन व संशोधन को एक साथ देना श्रेयस्कर मानते हैं। कारण, एक ही समय में एक ओर तो जठराग्नि व धात्वग्नियों द्वारा दीपन-पाचन से आमपाचन / आमनाशन होता जाता है, जबकि दूसरी ओर मलों व निष्क्रिय विष-द्रव्यों को कोष्ठ में लाने, स्रोतस्-मुखों के विशोधन, व फिर उनके निष्कासन का कार्य चलता है। 

अतः, ऐसे चिकित्सक दीपन-पाचन व संशोधन औषधियों का एक साथ प्रयोग करना बेहतर मानते हुए 
>शुण्ठी,
>पिप्पली, 
>काली-मरिच 
>त्रिकटु चूर्ण
>हरीतकी, 
>बिभीतक, 
>आमलकी (त्रिफला चूर्ण)
 को मिला कर, रोगी को सेवन कराते हैं।

फिर कुछ अधिक अनुभवी चिकित्सक, दोनों प्रकार के औषध समूहों में से सर्वश्रेष्ठ एक-एक औषधी को मिला कर देने को, अधिक सरल व लाभकारी मानते हैं, व इसके लिए वे हरीतकी व शुण्ठी को सम मात्रा में प्रयोग करते हैं। और, अनेकों अनुभवी चिकित्सक मानते हैं कि यदि इस कार्य के लिए दीपन-पाचन औषधी अर्थात् शुण्ठी को एक भाग, तथा संशोधन करने वाली औषधी अर्थात् हरीतकी को दो भाग के अनुपात में मिलाकर सेवन कराया जाए तो चिकित्सा अधिक फलीभूत होती है।

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