■भैषज्य कल्पना
●पर्याय = भेेेेषज,
भैषज्य,
औषधि,
●परिचय:-
आयुर्वेदिय संहिताओं में भेषज, भैषज्य तथा औषधि शब्द का प्रयोग प्रायः पर्याय रूप में एक दूसरे के लिए प्रयुक्त हुआ है।
आचार्य चरक ने चिकित्सा स्थान प्रथम अध्याय में भेषज के निम्न पर्याय कहे हैं, यथा-
चिकित्सितं व्याधिहरं पथ्यं साधनमौषधम् । प्रायश्चितं प्रशमनं प्रकृति स्थापनं हितम् ॥
विद्याद् भेषजनामानि- (च.चि. 1/1/3)
1.चिकित्सित
2. व्याधिहर
3. पथ्य
4. साधन
5. औषध
6. प्रायश्चित
7. प्रशमन
৪. प्रकृतिस्थापन
9. हित ये भेषज के पर्याय है।
●अमरकोश के अनुसार:-
भेषजौषध भैषज्यान्यगदो जायुरित्यपि ।
(अमरकोश 2/6/50)
●भेषज, औषध, भैषज्य, अगद तथा जायु ये दवा के पाँच नाम है।
◆आचार्यों ने चिकित्सा के चार पाद का वर्णन किया है। जिसमें भिषक् द्रव्य, उपस्थाता तथा रोगी इन चार का ग्रहण किया जाता है।
● द्रव्य या औषधि के गुण का वर्णन आचार्य चरक ने निम्न रूप में किया है।
बहुता तत्र योग्यत्वमनेकविध कल्पना।
संपच्चेति चतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुण उच्यते ॥
(च.सू. 9/7)
अर्थात्
●औषधि का ज्यादा मात्रा में प्राप्त होना या उपलब्ध होना,
●व्याधि नाश करने में समर्थ होना,
●उस औषधि की अनेक कल्पना जैसे स्वरस, कल्क, क्वाथ आदि का निर्माण होना ( तथा प्रभावी होना) एवं
●औषधि का अपने गुण यथा रस, वीर्य, आदि से युक्त होना, उत्तम औषधि के लक्षण कहे गये हैं।
इस प्रकार भेषज तथा उसकी अनेक कल्पना करना एक बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। हम भैषज्य कल्पना के अन्तर्गत भैषज्य या भेषज के विभिन्न कल्पनाओं जैसे स्वरस, क्वाथ, अवलेह आदि का अध्ययन करते हैं।
●भैषज्य कल्पना का अर्थ =
भैषज्य कल्पना शब्द
भैषज्य + कल्पना
इन दो शब्दों से मिलकर बना है।
भैषज्य
■भैषज्य की परिभाषा=
1. भिषक जिते हितत्वात च भैषज्यं परिचक्षते । (का.खि.)
2. भिषजा संस्तुतं द्रव्यं भैषज्यम् ।
(आढमल्ल शाङ्ङ्गघर 1/1 पर )
इस प्रकार भैषज्य शब्द का अर्थ है जो चिकित्सा के कार्य में हितकारी हो या वैद्य के द्वारा चिकित्सा हेतु संस्तुत द्रव्य की संज्ञा भैषज्य की होती है।
कल्पना
■ कल्पना का अर्थ=
1. कल्पनम-(क्लप् + ल्युट) रूप देना, बनाना। (हिन्दी संस्कृत शब्द कोष, वा. शि. आप्टे)
2. कल्पनं उपयोगार्थ प्रकल्पनं संस्करणमिति । (आ. चक्रपाणि)
"औषधि को उपयोगी रूप देना ही कल्पना कहलाता है।"
इस प्रकार भिषक के द्वारा संस्तुत द्रव्य को उपयोगी रूप में परिवर्तित करने को भैषज्य कल्पना कहा जाता है ।
काश्यप संहिता के खिलस्थान में वर्णित भैषज्योपक्रमणीय अध्याय में औषधि का अधिष्ठान, औषधि का ज्ञान,भेषज, भैषज्य, अगद, कषाय, औषधि के गुण भेद, काल, औषधि सेवन विधि, निषिद्ध काल, औषधि जीर्ण लक्षण
तथा अजीर्ण लक्षण, वयानुसार मात्रा का वर्णन किया है। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भैषज्य कल्पना के अन्तर्गत भैषज्य के विभिन्न कल्पनाओं के निर्माण के साथ-साथ उसके सेवन विधि काल, मात्रा आदि का विस्तृत रूप से अध्ययन किया जाता है।
भैषज्य कल्पना में दो प्रकार की कल्पनाओं का समावेश किया जाता है-
1. औषाधीय कल्पना
2. आहार कल्पना
औषाधीय कल्पना को 2 भागों में बाँटा जा सकता है,
1. मौलिक कल्पना-जैसे स्वरस कल्क क्वाथ हिम फाण्ट।
2. व्युत्पन्न कल्पना-ऐसी कल्पनायें जिनके निर्माण हेतु मौलिक कल्पना की आवश्यकता होती है। जैसे, स्नेह,अवलेह, संधान आदि।
इसे निम्न रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है-
◆भैषज्य कल्पना का विकास -
भैषज्य कल्पना के विकास को कालानुसार निम्न रूप में विभाजित किया जा सकता है-
1. वैदिक कालीन भैषज्य कल्पना
2. संहिता कालीन भैषज्य कल्पना
3. मध्ययुगीन भैषज्य कल्पना
4. आधुनिक युग में भैषज्य कल्पना
1. वैदिक काल में भैषज्य कल्पना-
वैदिक साहित्य में औषध तथा आहार द्रव्यों का बहुलता से उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार औषोधियों की उत्पत्ति देवताओं से मानी गयी है। यथा-
या औषधिः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रि युगं पुरा ।
मनै नु बभूरूणामहं शरतं धामानि सप्त च॥
(ऋग्वेद 10/97)
वेद में भिषक एवं भेषज शब्द का भी वर्णन मिलता है।
यथा-
१ विप्रः स उच्यतें भिषक रक्षोहाऽमीवचातनः ॥ (ऋग्वेद 10/97)
२अभ्यूर्णोति यन्नग्नं भिषाक्ति विश्वं यत्तुरम्।
(ऋग्वेद 8/79/2 )
३युवं हस्थो भिषजा भेषजेभिः
(ऋग्वेद 1/157/6)
४.आपः शिवाः शिवातमा...तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ।
वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें विभिन्न प्रकार की औषधियों जैसे-करञ्ज, पिप्पल, अर्क, अश्वत्थ,खदिर, आँवला, तिल, दूर्वा, अपामार्ग, अर्जुन, गोधूम, मसूर तथा सोम आदि का वर्णन प्राप्त होता है।
*अथर्वेद मेंऔषधियों के चार विभाग किये गये है-
1.आथर्वणी
2. आङ्गिरसी
3. दैवी
4. मनुष्यजा
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उपरोक्त औषधियों का प्रयोग किसी न किसी कल्पना के रूप में किया जाता रहा होगा। अथर्ववेद के वैदिक ग्रन्थों में आठ नाम आते है।।
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