AYURVEDIC MANAGEMENT IN VIRAL INFECTIONS :- वायरल इन्फ़ैक्शन्ज़ (विषाणुज संक्रमण) की आयुर्वैदिक चिकित्सा :-

AYURVEDIC MANAGEMENT IN VIRAL INFECTIONS :-
वायरल इन्फ़ैक्शन्ज़ (विषाणुज संक्रमण) की आयुर्वैदिक चिकित्सा :-

वायरस (विषाणुओं) से पैदा होने वाले इन्फ़ैक्शन्ज़ (संक्रमणों) का प्रचलन पिछले कुछ दशकों से काफी बढ़ गया है। 
इन इन्फ़ैक्शन्ज़ के कुछ सामान्य लक्षण व चिन्ह होते हैं - 

i. जैसे कि बुखार, सिरदर्द, ज़ुकाम, गले में दर्द, खाँसी, पूरे शरीर की मांसपेशियों, हड्डियों, व सन्धियों में दर्द, कमज़ोरी, थकावट, बेचैनी वगैरह; तथा
ii. कुछ विशेष तक़लीफ़ें होती हैं - जो हरेक वायरल इन्फ़ैक्शन में अलग होती हैं, 
जैसे चिकुनगुण्या में हड्डियाँ टूटने जैसी दर्दें,
डैंग्यु में दर्दों के साथ-साथ त्वचा में दाने निकलना व रक्तस्राव होना,
हर्पीज़ ज़ाॅस्टर में जलन व दर्द से युक्त छाले, वगैरह।  

वायरल इन्फ़ैक्शन्ज़ का फैलाव कई प्रकार से हो सकता है - 
• वायु के माध्यम से सांस के द्वारा, जैसे - साधारण जुकाम, मौसमी फ्लू, रैस्पीरेटॅरि सिनसीशल
वायरस, इन्फ़ैक्शन्ज़ से होने वाला सर्दी, जुकाम, व न्यूमोनिया, कोरोना वायरस;
• खाने-पीने से - हैपॅटाइटिस, पोलियो, रोटा-वायरस-जन्य अतिसार, विशूचिका, व महास्रोतस् की अन्य व्याधियाँ;
• स्पर्श के द्वारा - हर्पीज़ ज़ाॅस्टर, हर्पीज़ सिम्प्लैक्स, चिकनपाॅक्स; 
• संभोग के माध्यम से - ह्युमन पैपीलोमा वायरस, जैनायटल हर्पीज़, एॅच.आइ.वी.; व
• इन्जैक्शन के द्वारा - हैपेटाइटिस-बी;
• मच्छरों व अन्य जीवों द्वारा - डैंग्यु, चिकुनगुण्या, स्वाईन फ्लू। 

वायरस को विषाणु का नाम दिया गया है। कारण, मानव देह में प्रवेश करने के बाद, यह किसी भी अन्य खतरनाक विष की तरह, तीव्र गति से बढ़ता, फैलता, विकार/उपद्रव पैदा करता, व कभी-कभी मृत्यु का कारण भी बनता है।

आयुर्वेद में अलग-अलग वायरल इन्फ़ैक्शन्ज़ को अलग-अलग नाम दिए गए हैं, जैसे - विषम ज्वर, वात/कफ-प्रधान सन्निपात ज्वर, विसर्प इत्यादि। सभी की चिकित्सा के लिए कुछ सामान्य व कुछ विशेष औषधियों का उपयोग करने का विधान है। 

वायरल (विषाणुज) संक्रमणों की सामान्य चिकित्सा के मुख्य चार लक्ष्य रहते हैं - 
1. वायरस (विषाणु) का नाश;
2. रोगी की ओजस् व रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बलवान बनाना;
3. वायरस के संक्रमण से उत्पन्न विकृतियों को दूर करना;
4. रोगी के बल व सामान्य स्वास्थ्य में वृद्धि करना; व
5. उपयुक्त पथ्यापथ्य का पालन करना ।

उपरोक्त तीनों लक्ष्यों की सिद्धि के लिए निम्न प्रकार की चिकित्सा द्वारा की जा सकती है - 

1. वायरस (विषाणु) का नाश करने वाली औषधियों
(Anti-viral drugs):-
• भल्लातकं, कालमेघ, दुग्धिका ;
• भूम्यामलकी ;
• शुण्ठी, हरीतकी ;
• मधुयष्टी, दालचीनी, रसोन, ग्रीन चाय;
• चिरायता 

2. ओजःवर्धक / रोग-प्रतिरोधक-शक्ति वर्धक औषधियाँ (Immune-boosting drugs):-

• अश्वगन्धा, गुडूची, तुलसी, पिप्पली, यशद;
• शुण्ठी, हरीतकी ;
• कटुकी, हरिद्रा, मधुयष्टी;
• सुवर्ण , मकरध्वज, वृहत्-वात-चिन्तामणी रस;
• ताम्र (आरोग्यवर्धिनी);
• निम्बु, दालचीनी, हरी चाय 

3. संक्रमण-जन्य विकृतिहर औषधियाँ
(Drugs to manage underlying Pathology):-

i. शोथ (Inflammation)
• शल्लकी, एरण्डमूल, जातीफल (लोस्वैल टैबलेट);
• गुग्गुलु, भल्लातक, चित्रक (रिवप्लाॅक टैबलॅट, रास्ना-गुग्गुलु, कैशोर-गुग्गुलु)

ii. वेदना (Pain): 
• वत्सनाभ, गोदन्ती, जातीफल (डोलिड टैबलॅट);
• तगर, पारसीक यवानी, रक्तमरिच, जातीफल (डीएॅल्को टैबलॅट);
 
iii. अतिसार (Diarrhea): 
• अतिविषा, पञ्चामृत-पर्पटी, शंख, पिप्पली (एॅण्ट्रिड टैबलॅट);
• मुस्तक, कुटज, बिल्व, दारुहरिद्रा 

iv. कास (Cough):
• शटी, मधुयष्टी, ज़हरमोहरा (लर्जैक्स टैबलॅट);
• कण्टकारी, वासा, तुलसी, क्षार, तालीस

 v. श्वास (Breathlessness):
• अन्तमूल, दुग्धिका, अर्क, गण्डीर (एॅस्थैक्स टैबलॅट);
• शटी, पुष्करमूल, कण्टकारी, वासा;
• भारंगी, धत्तूरा (भार्गयादि क्वाथ, कनकासव)

vi. रक्तस्राव (Bleeding):
• एरण्डकर्कटी पत्र (कैरिपा टैब्लॅट);
• नागकेसर, बोल-पर्पटी, कहरवा (तृणकान्तमणी) पिष्टी  

vii. जीवाणु-जन्य संक्रमण (Secondary bacterial infections): 
• चिरायता, अतिविषा, गन्धक, यशद (इन्फ़ैक्सी टैब्लॅट, सुदर्शन चूर्ण);
• गुग्गुलु, भल्लातक, चित्रक (रिवप्लाॅक टैबलॅट, रास्ना-गुग्गुलु, कैशोर-गुग्गुलु);
• मञ्जिष्ठा, सारिवा, निम्ब, कटुकी (मञ्जिष्ठादि क्वाथ, सारिवादि वटी, पञ्चतिक्त-घृत गुग्गुलु);
• ताम्र, मल्ल, सुवर्ण, हरिताल, मनःशिला, वंग, त्रिवंग

4. रोगी का बल व स्वास्थ्य बढ़ाने वाली औषधियाँ
(Antioxidant drugs):-

i. शिलाजतु, आमलकी, यशद, मुक्ताशुक्ति, स्वर्णमाक्षिक, अभ्रक ;
ii. अश्वगन्धा, गुडूची, तुलसी, पिप्पली, यशद;
iii. शतावरी, गोक्षुर, मुशली

5. पथ्यापथ्य (Lifestyle):-

वायरल इन्फ़ैक्शन्ज़ (विषाणुज संक्रमण) होने पर निम्न सामान्य व रोगानुसार विशेष पथ्य-अपथ्य का पालन कराएं - 
• शारीरिक व मानसिक विश्राम दें। यथासम्भव स्वस्थ व्यक्तियों से दूरी बनाए रखें ताकि उन्हें भी संक्रमण न हो।
• रुचि के अनुसार हल्का किन्तु पोषक आहार दें। 
• उबाल कर ठण्डा किया, सामान्य अथवा कदुष्ण जल, सामान्य से अधिक मात्रा में दें, ताकि शारीरिक जलीयांश की सम्यक् आपूर्ति हो सके, व तृष्णा, रसक्षय इत्यादि न होने पाएँ। 
• ताज़ी सब्जियाँ व ताज़े फल रुचि तथा आवश्यकता अनुसार खिलाएँ।
• साफ़-सफ़ाई का विशेष ध्यान रखें।  
• नाक व मुँह को मास्क से ढके रखें। हाथों पर बार-बार सैनिटाइज़र लगा कर उन्हें संक्रमण-मुक्त करते रहें।  
• भीड़ वाली व बन्द जगहों पर न जाएँ।

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