भैषज्य कल्पना का विकासः-


        ◆भैषज्य कल्पना का विकास -

भैषज्य कल्पना के विकास को कालानुसार निम्न रूप में विभाजित किया जा सकता है-

1. वैदिक कालीन भैषज्य कल्पना
2. संहिता कालीन भैषज्य कल्पना
3. मध्ययुगीन भैषज्य कल्पना
4. आधुनिक युग में भैषज्य कल्पना

1. वैदिक काल में भैषज्य कल्पना-

वैदिक साहित्य में औषध तथा आहार द्रव्यों का बहुलता से उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार औषोधियों की उत्पत्ति देवताओं से मानी गयी है। यथा-
या औषधिः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रि युगं पुरा ।
 मनै नु बभूरूणामहं शरतं धामानि सप्त च॥
                                         (ऋग्वेद 10/97)

वेद में भिषक एवं भेषज शब्द का भी वर्णन मिलता है।
 यथा-
१ विप्रः स उच्यतें भिषक रक्षोहाऽमीवचातनः ॥                                           (ऋग्वेद 10/97)
२अभ्यूर्णोति यन्नग्नं भिषाक्ति विश्वं यत्तुरम्।      
                                       (ऋग्वेद 8/79/2 )
३युवं हस्थो भिषजा भेषजेभिः 
                                       (ऋग्वेद 1/157/6)

४.आपः शिवाः शिवातमा...तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ।

वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें विभिन्न प्रकार की औषधियों जैसे-करञ्ज, पिप्पल, अर्क, अश्वत्थ,खदिर, आँवला, तिल, दूर्वा, अपामार्ग, अर्जुन, गोधूम, मसूर तथा सोम आदि का वर्णन प्राप्त होता है। 
*अथर्वेद मेंऔषधियों के चार विभाग किये गये है-

1.आथर्वणी

2. आङ्गिरसी

3. दैवी

4. मनुष्यजा

इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उपरोक्त औषधियों का प्रयोग किसी न किसी कल्पना के रूप में किया जाता रहा होगा। 
*अथर्ववेद के वैदिक ग्रन्थों में आठ नाम आते है। उनमें भेषज वेद तथा यातुवेद यह दो नाम ही स्पष्ट-करते है कि अथर्ववेद में आयुर्वेद का विषय प्रचुर रूप में विद्यमान है।

*रोग शान्ति के लिए वेद में प्राकृतिक, खनिज, समुद्रज, प्राणिज तथा उद्भिज द्रव्यों का प्रयोग औषध रूप में मिलता है।
 प्राकृतिकों में सूर्य, चन्द्र (अथर्व, 6/ 83/1),
 अग्नि (अथर्व. 10/ 4/2), 
मरूत (ऋग्वेद 2/33/13), 
खनिज द्रव्यों में अजंन (अथर्व, 4/9/9), 
समुद्रज में शंख (अथर्व. 4/10/4), 
प्राणिज में मृगशृगं (अथर्व. 3/7/1) 
तथा उद्भिजों में अनेक वीरूधों का वर्णन आता है।

*प्राकृतिक, प्राणिज, खनिज तथा समुद्रज द्रव्यों का वर्णन बहुत संक्षेप से आता है। 
*उद्भरिज औषधियों का वर्णन विस्तृत रूप में मिलता है। यद्यपि औषधियों का एक विश्लेषण अपक्रीता (अथर्व 8/ 7/11 ) भी दिया गया है लेकिन कई औषधियाँ पैसे से बिकती थी तथा कई द्रव्य विनिरमय से प्राप्त होते थे।
* वेदों में एक रोग की शान्ति के लिए एक समय में एक ही औषधि प्रयोग का वर्णन विस्तार से मिलता है जिसमें सोम,सहस्रपरी,अपामार्ग, पिप्पली, अजशृंगी, पृश्निर्णी आदि प्रमुख है ।।
*वेदों में यद्यपि कल्पनाओं के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं फिर भी अञ्जन कल्पना का नाम से वर्णन उपलब्ध है।
* अञ्जन सेवन के प्रकार में आंख में लगाना, मणिधारण, स्नान तथा पीना कहा गया है, यथा-

आक्ष्वैकं मणिमेकं कृणुष्व स्नाहयोकेना पिबैकमेषाम् । (अथर्व 19/45/5)

लेकिन इसकी निर्माण विधि का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है।

*इसी प्रकार कुछ अन्य कल्पनायें जैसे स्वरस, कल्क, क्वाथ, स्नेह आदि कल्पनाओं के नामों का उल्लेख नहीं है।

*लेकिन जिस प्रकार से या जिस विधि से इनका निर्माण किया गया है उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कल्पनायें वैदिक काल में प्रचलित थी।
*इसी प्रकार आहार कल्पनाओं के अन्तर्गत आने वाली कल्पनायें जैसे धाना,करम्भ, सतक्तु, पय, दधि आदि का स्पष्ट रूप से उल्लेख प्राप्त होता है। यथा-

धानाः करम्भः सत्तवः परिवापः परयो दधि । सोमस्य रूप हविष आमिक्षा वाजिनं मधु ॥
                                             (यजु. 19/21)

धाना (भूजा हुआ अन्न), करम्भ (मण्ड), सक्तु, परिवाप (भूना हुआ चावल या भूजा), दूध, दहि, आमिक्षा (फटा हुआ दूध), वाजिन (दहि का पानी या मस्तु) तथा मधु का प्रयोग यज्ञ के दौरान होता था ।

*ऋग्वेद में सोमरस निर्माण की प्रक्रिया तथा इसमें प्रयुक्त यन्त्र/उपकरण का वर्णन प्राप्त होता है, 
जो निम्न है-(म..1/अ.6/सू. 28)

यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे उलूखल सुतानामवेद्धिन्द्र जल्गुल: ॥1॥

हे इन्द्र! जहां कूटने के लिए दृढ़ पत्थर का मसूल उठाया जाता है वहां निष्पन्न किये गये सोमों को बारम्बार सेवन करो।

*उपरोक्त निर्माण विधि के अवलोकन से पता चलता है कि यह स्पष्ट रूप से स्वरस निर्माण विधि है ।

*इसी प्रकार डण्डे, तीर या चोट से बने घाव में सिलाची का प्रयोग कल्क कल्पना का रूप माना जा सकता है।

*आवय नामक पौधे से करम्भ बनाने की विधि को क्वाथ कल्पना के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है।

*शतपथ ब्राह्मण में "शृत" शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। (श. व्रा. 2/3/1/14)

वैदिक कालीन औषध एवं आहार कल्पनाओं का संहिता ग्रन्थों में वर्णित कल्पनाओं से सामञ्जस्य

औषधि कल्पना                    
*इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल में औषधि एवं अन्न का उपयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता था। जिसको भैषज्य कल्पना विज्ञान में एक विशेष नाम से जाना जाता है।

2.रामायण में वर्णित लक्ष्मण शक्ति प्रकरण में सुषेन वैद्य तथा संजीवनी बूटी का मूरच्च्छा में सफल प्रयोग उस काल की भैषज्य कल्पना के विकसित स्वरूप का द्योतक है। 

3. पिटक में भगवान बुद्ध
विस्तारपूर्वक औषधियों के निर्माण, सेवन तथा वितरण की व्यवस्था का उल्लेख किया है । इसमें घृत, मधु, चर्बी, कषाय,फल-पत्र, गोंद, लवण, चूर्ण, मांस, रक्त, धूम्रपान, नस्य और मद्य आदि पदार्थों की औषधि उपयोगी व्यवस्था उपलब्ध होती है। (विनय पिटक "भैषज्य स्कन्ध" 6-महावग्ग 6-215)

4.कौटिल्य अर्थशास्त्र - इसके अनुसार औषधि द्रव्य का संग्रह कुष्याध्यक्ष, द्रव्य पाल एवं वन पाल करते थे।
*पण्याध्यक्ष औषधियों को कारखाने में तैयार कराते थे तथा इन्हें बड़े-बड़े भण्डार में सुरक्षित रखते थे। (2/16 तथा 2/5)

*कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार औषधिशाला का निर्माण उत्तर पश्चिम दिशा में कराना चाहिए. यथा-

उत्तर पश्चिमे भागे पण्य भैषज्य गृहम् ।।
                                        (कौ. अ. 2/3)

*कौटिल्य अर्थशास्त्र 4/1 के अनुसार औषधियों के उत्पादन के लिए राज्य की तरफ से कुछ भूमि अलग छोड़ देने का उल्लेख किया है। 
*इसी प्रकार गुणवत्ता हीन औषधियों के बेचने पर आर्थिक दण्ड का भी प्रावधान था।

जैसे-धान्य स्नेह क्षार लवण गन्ध भैषज्य द्रव्याणां समवर्णोपधाने द्वादश पणो दण्डः । (4/2 )
 अर्थात धान्य, स्नेह,क्षार, लवण, गन्ध तथा भेषज द्रव्यों के समान दूसरा द्रव्य बेचने पर 12 पण का दण्ड लगाया जाता था।

◆2 बृहत् त्रयी में भैषज्य कल्पना का स्वरूप

●चरक संहिता
श्रीमद अग्निवेश द्वारा रचित तथा आचार्य चरक द्वारा प्रति संस्कृत चरक संहिता आठ स्थान जैसे सूत्रस्थान, 
निदानस्थान,
 विमान स्थान, 
शारीर स्थान, 
इन्द्रिय स्थान, 
चिकित्सा स्थान, 
कल्प स्थान एवं 
सिद्धि स्थान में परिपूर्ण है।

 चरकसंहिता का विस्तृत अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि भैषज्य कल्पना सम्पूर्ण चरक संहिता में अध्यायों में वर्णित प्रसंग के अनुरूप उपलब्ध प्राप्त होती है।
* चरक संहिता के सूत्रस्थान में तृतीय अध्याय में लेप कल्पना का वर्णन उपलब्ध है।
* जबकि सूत्रस्थान के चतुर्थ अध्याय में पंच कषाय योनियों तथा पंच कषाय कल्पना का वर्णन प्राप्त होता है। यथा-

पञ्च कषाययोनय इति मधुरकषायोऽम्लकषायः कटु कषाय तिक्तकषायः कषाय कषायश्चेति तन्त्रे संज्ञा।                                                   (च.सू. 4/6)

पञ्चविधं कषाय कल्पनामिति तद्यथा-स्वरसः, कल्कः, श्ृतः, शीतः, फाण्ट: कषाय इति।
 तेषां यथापूर्व बलाधिक्यम्, अतः कषाय कल्पना व्याध्यातुर बलापेक्षिणी, न त्वेषं खलु सर्वाणि सर्वत्रोपयोगिनी भवति। (च.सू. 4/7)

कषाये योनियाँ पाँच होती है जैसे 
मधुर कषाय, 
अम्ल कषाय,
 कटु कषाय,
 तिक्त कषाय 
कषाये कषाये।

 इसमें लवण को कषाय योनि के अन्तर्गत समावेश नहीं किया गया है इसी प्रकार कषाय कल्पनायें भी पाँच मानी गई है जैसे

स्वरस, 
कल्क, 
क्वाथ, 
हिम तथा
 फाण्ट। 
ये यथापूर्व अर्थात फाण्ट की अपेक्षा हिम, हिम की अपेक्षा शृत, शृत की अपेक्षा कल्क तथा कल्क की अपेक्षा स्वरस अधिक बलवान होती है। 

●स्वरस >कल्क >क्वाथ>हिम >फाण्ट। 

इसलिए ये पंच कषाय कल्पनायें व्याधि तथा आतूर बल के अनुसार प्रयोग की जाती है तथा एक ही कल्पना सभी में उपयोगी नहीं होती है इस सत्र से आचार्य चरक ने विभिन्न कल्पनाओं के निर्माण का आधार बताया है। औषधि के प्रकृति के अनुसार उसकी विभिन्न प्रकार की कल्पनायें किये जाते हैं।
● चरक संहिता के कल्प स्थान में विभिन्नर औषध कल्पों के कुल 600 योगों का वर्णन किया गया है। ●सूत्रस्थान के 27 वें अध्याय अन्नपान विधि में विभिन्न प्रकार के आहार कल्पनाओं जैसे-मण्ड, पेया, पूपलिका, मधुक्रोड, वेशवार,विमर्दक, मोरट, शष्कुली आदि के गुणों का वर्णन किया है जो कि उस काल में प्रचलित कल्पनायें थे।

●सूत्रस्थान के 25वें अध्याय में आसव की नव योनियाँ तथा इससे 84 प्रकार के आसव का वर्णन तथा आसव की परिभाषा का उल्लेख मिलता है। 

●विमान स्थान के 7 वें अध्याय में स्वरस निर्माण विधि (7/21), भल्लातक तैल पातन विधि (7/23), स्नेह पाक विधि तथा सिद्धि लक्षण (7/26), क्वाथ निर्माण विधि (7/17), का वर्णन अच्छी प्रकार से प्राप्त होता है। 

●कल्प स्थान में भैषज्य कल्पना के अन्य विषयों जैसे औषधि ग्रहण योग्य भूमि, औषधि ग्रहण
काल, संरक्षण विधि, अवलेह सिद्धि लक्षण (कल्प स्थान) स्नेह सिद्धि लक्षण (कल्प स्थान), मान परिभाषा तथा अनुक्त मान का वर्णन उस काल में भैषज्य कल्पना की विकसित स्थिति का द्योतक है।

◆सुश्रुत संहिता

महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित यह संहिता यद्यपि प्रधान रूप से शल्य चिकित्सा से सम्बन्धित ग्रंथ है फिर भी इस संहिता में भैषज्य कल्पना की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। 
महर्षि सुश्रुत ने छह मौलिक कल्पनाओं का उल्लेख किया है। यथा-

क्षीरं रसः कल्कमथो कषायः शृतश्च शीतश्च तथैव फाण्टम् ।
कल्पाः षडेते खलु भेषजानां यथोत्तरं ते लघवः प्रदिष्टाः ॥
                                (सु.सू. 44/91)

अर्थात क्षीर (latex), 
           रस,( juice)
          कल्क,(pest)
          कषाय, 
          शीत तथा 
          फाण्ट ( like hot tea bags)  
ये छहः कल्पनायें भेषज की होती है तथा उत्तरोत्तर
लघु होती है।
* इसके अतिरिक्त क्षार कल्पना के निर्माण की विस्तृत विधि सूत्रस्थान 12वाँ अध्याय में उपलब्ध होता है।

*अयस्कृति का विस्तृत उल्लेख इसी संहिता में प्राप्त होता है। 
*कृतान्न वर्ग (सू.अ. 46) के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के आहार कल्पनाओं के गुणों का वर्णन किया गया है ।

●अष्टांग संग्रह एवं अष्टांग हृदय

अष्टांग संग्रह तथा अष्टांग हृदय वृहत् त्रयी ग्रन्थों में तीसरा तथा अन्तिम ग्रन्थ है। अष्टांग संग्रह आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
 इसमें तत्कालीन आयुर्वेदीय परम्परा तथा सांस्कृतिक विरासत का अच्छा परिचय प्राप्त होता है। 
अष्टांग संग्रह में आयुर्वेद के आठ अङ्गों का संग्रह है । जिसमें सभी तन्त्रों के अंगभूत विषयों का समावेश किया गया है तथा संक्षिप्त एवं स्पष्ट शैली में उसका प्रतिपादन किया गया है। यथा-

सर्वतन्त्रायतः प्रायः संहृत्याष्टांग संग्रहः । अस्थानविस्तराक्षेप पुनरूक्तादिवर्जितः ॥. 
                                        (अ.स.सू. 1/18)

इस ग्रन्थ का अवलोकन करने पर भैषज्य कल्पना से सम्बन्धित निम्न विषयों का वर्णन प्राप्त होता है जो कि तत्कालीन भैषज्य कल्पना की स्थिति का द्योतक है।
 कषाय कल्पनाओं में
 स्वरस,
 कल्क, 
 क्वाथ, 
 हिम तथा 
 फाण्ट माना है।

.●विविधौषध विज्ञानीय अध्याय में औषध का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया गया है.
 द्रव्यों का वर्गीकरण आचार्यवाग्भट्ट ने तीन अध्यायों में किया है।
 इसमें महाकषायों की संख्या 45 तथा 
          गणों की संख्या 25 कही गयी है।

.* वाग्भट्ट ने आचार्य सुश्रुत के गणों को विविध गण संग्रह में किया है।

*आचार्य ने रस देश का वर्णन किया है, जो निम्न है-

आनूप देश 
साधारण देश
जांगल देश

आचार्य वाग्भट्ट ने अन्नपान विधि को दो अध्याय में वर्णित किया  है ।

1. द्रव द्रव्य विज्ञानीय

2. अन्न स्वरूप विज्ञानीय

*द्रव द्रव्य विज्ञानीय अध्याय में जल वर्ग, क्षीर, इक्षु, मधु, तैल, मद्य तथा मूत्र वर्ग का वर्णन किया है तथा 
*अन्नस्वरूप विज्ञानीय अध्याय में शूक धान्य, शिम्बी धान्य, कृतान्न, मांस, शाक, फल तथा मात्रादि का वर्णन है।
* इक्षु वर्ग काश, शर, दर्भ के पत्र से उत्पन्न शर्करा का वर्णन किया गया है। 
*मद्य वर्ग में धातकी पुष्प से अभिषुत द्राक्षासव का वर्णन है।
* कृतान्न वर्ग में दकलावणिक (मांस रस विशेष), धारिका, इण्डरिका कल्पनायें आचार्य वाग्भट्ट की मौलिक कल्पना मानी जाती है।

*धातकी का प्रयोग आसव/अरिष्ट निर्माण में सर्वप्रथम आचार्य वाग्भट्ट ने शुरू किया।

धातकी गुड़तोयानि कारणं मद्यशुक्तयो (अ.स.सू. 7/243 )

*आचार्य ने स्वभाव, संयोग आदि सात आहार कल्पना विशेष का वर्णन किया है।
* आहार तथा औषध के पाचन काल क्रमशः 4 याम तथा 2 याम माना है।
*धान्य वर्ग में मण्ड, पेया, विलेपी, ओदन, कृशरा, यूष, खल, काम्बलिक, शुष्क शाक, विरूढ़क, शण्डाकी,वटक, पर्पट, लाजा, धाना, सतक्तु, पिरायाक, शष्कुली, मोदक, अपूप, धारिका, इण्डारिका, पूर्णकोश, उत्कारिका,पायस, संयाव आदि कल्पनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। 
*औषध कल्पनाओं में पंच कषाय कल्पनाओं के अतिरिक्त
आसव, 
अरिष्ट, 
स्नेह,
अवलेह, 
क्षार, 
लवण, 
शतधौत घृत, 
सहस्रधौत घृत,
बस्ति, 
नस्य, 
आश्चयोतन, 
विडालक,
धूमपान, 
गण्डूष आदि का वर्णन प्राप्त होता है।

◆काश्यपसंहिता ;-

*यद्यपि इस संहिता का मुख्य विषय वस्तु बच्चों से सम्बन्धित है फिर इस संहिता में भैषज्य कल्पना से सम्बन्धित कुछ विशेष बातों का वर्णन किया गया है। 
*इसमें भेषज, भैषज्य, औषधि, अगद की परिभाषा का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। 
*औषधि तथा भेषज में अन्तर इसी संहिता में उपलब्ध है यथा-

ओषधं द्रव्य संयोगं ब्रुवते दीपनादिकम् ।
हुत व्रत तपोदानं शान्तिकर्म च भेषजम् ॥                                                    (का.इ. 6/5)

आचार्य काश्यप ने मौलिक कल्पनाओं को सात माना है,
यथा-

चूर्ण शीत कषायश्च स्वरसोऽभिषवस्तथा। फाण्ट: कल्कस्तथा क्वाथो यथावतं निवोध मे।
                                 (का.खि. 3/34)

चूर्ण, शीत कषाय, स्वरस, अभिषव, फाण्ट, कल्क तथा क्वाथ ये सात है। 

*कल्प स्थान में धूप कल्प,शतावरी कल्प, लशुन कल्प आदि का वर्णन किया है भैषज्योपकरणीय अध्याय में औषधि जीर्ण लक्षण, औषधि अजीर्ण
लक्षण, औषधि मात्रा आदि का वर्णन किया है।

यूष निर्देशीय अध्याय में यूष का विस्तृत वर्णन, यवागू आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त लेहन का भी विशेष वर्णन प्राप्त होता है।

         3. मध्यकालीन भैषज्य कल्पना

इस युग में ग्रदनिग्रह, चक्रदत्त, शाङ्ङ्गधर संहिता आदि का ग्रहण किया जाता है जिसका वर्णन निम्न है-

●गदनिग्रह,
यह आचार्य सोढ़ल द्वारा विरचित है। इसके अध्याय का वर्णन कल्पनाओं के आधार पर है। यथा घृताधिकार, तैलाधिकार आदि। जिससे यह पता चलता है कि इन्होंने कल्पनाओं को अधिक महत्व दिया है।

चक्रदत्त
यह आचार्य चक्रपाणि द्वारा विरचित है। इसमें भैषज्य कल्पना के विभिन्न सिद्धान्तों तथा मान प्रकरण से सम्बन्धितकुछ विशेष प्रकरण का वर्णन है।
 इसमें स्वरस, कल्क, क्वाथ, हिम तथा फाण्ट के अतिरिक्त आसव, अरिष्ट, तैल,घृत, अवलेह आदि का वर्णन है। 
आहार कल्पनाओं में यूष, यवागू, राग, षाडव, तक्र, मण्ड, पेया, विलेपी आदि का वर्णन प्राप्त होता है क्षार सूत्र निर्माण विधि भी इस ग्रन्थ में उपलब्ध हैं।।

★चक्रदत्त में सर्वप्रथम ग्रहणी रोग में रसपर्पटी
का प्रयोग किया है। गन्ध द्रव्यों के शोधन का वर्णन भी इस ग्रन्थ की विशेषता है।

■शाङ्ग्रधर संहिता 

★यह ग्रन्थ भैषज्य कल्पना का आधारभूत ग्रन्थ है।
★इसे 13वीं शती में आचार्य शार्कघर मिश्र ने लिखा है। 
★यह ग्रन्थभैषज्य कल्पना की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह तीन खण्ड में परिपूर्ण है यथा-

1. पूर्व खण्ड

2. मध्यमे खण्ड

3. उत्तर खण्ड

*पूर्व खण्ड में सात अध्याय
 (परिभाषा, भैषज्याख्यानक, नाडी परीक्षा, दीपन पाचन, कलादि व्याख्या,आदि तथा रोग गणना), 

*मध्यम खण्ड में बारह अध्याय 
(स्वरस, क्वाथ, फाण्ट, हिम, कल्क, चूर्ण, गुटिका, अवलेह,स्नेह, संधान, धातु शुद्धि तथा रस प्रकरण) 

*उत्तर खण्ड में तेरह अध्याय 
(स्नेहपान, स्वेदविधि, वर्न , विरेचन, स्नेह बस्ति, निरूह बस्ति, उत्तर बस्ति, नस्य, धूमपान, गण्डूष, लेप, शोणित विस्रुति तथा नेत्रकर्म) है। 

*पूर्व खण्ड में भैषज्यकल्पना के आधारभूत सिद्धान्त, मान प्रकरण, अनुक्त मान, भैषज्य काल आदि का वर्णन है। 
*विभिन्न औषधि कल्पनाओं की सवीर्यता अवधि का वर्णन किया गया है जो कि इस संहिता की विशेषता है।

* मध्यम खण्ड में कल्पनाओं का विवरण
प्राप्त है। 
मध्यम खण्ड के अध्याय कल्पनाओं के नाम पर है। प्रत्येक अध्याय में कल्पना की परिभाषा, निर्माण विधि, पर्याय, मात्रा तथा योगों का रोगाधिकार सहित वर्णन बहुत ही सुन्दर विधि से किया गया है। 
*उत्तर खण्ड में स्नेहन, स्वेदन, बस्ति कल्पना, धूमपान, नस्य, लेप तथा नेत्र कल्पना के भेद तथा उनकी प्रयोग विधि, योग एवं उनके प्रयोग का वर्णन किया गया है।

                 4. आधुनिक काल

इस काल के आयुर्वेदिक ग्रन्थ में भैषज्य रत्नावली का विशेष स्थान है ।

■भैषज्य रत्नावली

*इस ग्रन्थ के कर्ता श्री गोविनदनाथ सेन जी है। 
*इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम स्नेह मूर्च्छना का वर्णन किया गया है जोकि भैषज्य कल्पना के विकास का द्योतक है।
 विभिन्न औषधियों के प्रतिनिध द्रव्यों का भी उल्लेख किया गया है ।
 इसकेअध्याय रोगों के नाम पर है यथा ज्वर चिकित्सा प्रकरण आदि। प्रत्येक अध्याय में उस रोग विशेष में कल्पनाओं का वर्णन किया गया है। 

★यह ग्रन्थ औषधि निर्माण के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थों में से एक है । इसमें लगभगसौ कल्पनाओं का वर्णन प्राप्त होता है।

◆    आधुनिक काल या स्वतन्त्रता के पश्चात      भैषज्य कल्पना का विकास

स्वतन्त्रता के पश्चात या ऐसा कहा जा सकता है कि सन 1964 में आयुर्वेदिक औषधियों को The Drugs andCosmetics Act 1940 के अन्तर्गत लाने के पश्चात् आयुर्वेदिक औषधियों की quality, purity तथा अन्य parameters जैसे shelf life, safety, labelling, packaging आदि पर विशेष रूप से फोकस किया गया तथा इन parameters के लिए आवश्यक कदम भारत सरकार द्वारा लिये गये। 
●जिनमें Ayurvedic PharmacopoeiaCommittee का गठन एक महत्वपूर्ण क्रम है। 
●इस कमेटी के द्वारा विभिन्न योगों के संग्रह के रूप में Ayurvedic Formulary of India तथा एकल औषधि के quality, purity तथा strength को निश्चित करने की दिशा मेंAyurvedic Pharmacopoeia of India के विभिन्न volume का प्रकाशन किया गया| 
●इन औषधियों की गुणवत्ता परीक्षण के लिए Pharmacopoeial Laboratory for Indian Medicine (PLIM) की स्थापना गाजियावाद में किया गया। 
●इसी प्रकार आयुर्वेदिक ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए 
Traditional Knowledge Digital Liberary
(TKDL) 
तथा Medicinal Plants के प्रसार हेतु National Medicinal Plant Board (NMPB) का गठनकिया गया।
● उपरोक्त सभी आयुर्वेद के उत्थान तथा प्रचार प्रसार एवं जनता में जागरूकता तथा स्वीकारता हेतु कार्य कर रहे हैं। 

■भैषज्य कल्पना के विकास को कालानुसार निम्न रूप वैदिक कालीन भैषज्य कल्पना,संहिता कालीन भैषज्य कल्पना,मध्ययुगीन भैषज्य कल्पना, से आधुनिक युग में भैषज्य कल्पना में विकाश का क्रम निरंतर रूप से चलता आ रहा है।।

If any doubts plz comment ....
Happy learning...👍








 







एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ